भू-अधिग्रहण पर ब्रिटिश कानून का साया

Posted by Rajendra Rathore on 5:58 AM

भारत में तेजी से बढ़ते औद्योगीकरण के कारण घटती कृषि भूमि को लेकर अकेले उत्तरप्रदेश ही नहीं, बल्कि देश के कई राज्यों के किसानों में भारी आक्रोश है। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर उत्तरप्रदेश के नोएडा से भड़की चिंगारी आज अन्य क्षेत्रों में भी तेजी फैल रही है। इस सारे फसाद की जड़ 100 वर्ष से भी पुराना ब्रिटिशकालीन भूमि अधिग्रहण कानून है, जिसे संशोधित करने के आश्वासन के बाद भी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार अपने कदम आगे नहीं बढ़ा पा रही है। हालांकि इस मसले को लेकर प्रमुख पार्टियों के नेता राजनीति जरूर कर रहे हैं।

औद्योगीकरण के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया उत्तर प्रदेश ही नहीं, कई राज्यों की सरकार ने जब से शुरू कराई है, तभी से बखेड़ा शुरू हुआ है। हालात ऐसे हैं कि सभी राज्यों के किसान अपनी जमीन की अधिक कीमत मांग रहे हैं, इसके अलावा उन्हें औद्योगिक विकास में अधिक से अधिक हिस्सेदारी भी चाहिए। उत्तरप्रदेश राज्य की बात करें तो वर्तमान में यहां कई बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं, जिनके लिए भूमि अधिग्रहण किया जाना है, लेकिन सरकार व उद्योगपतियों द्वारा किसानों की मांग को बिल्कुल अनदेखा किया जा रहा है। जबकि यह कोई ऐसा मसला नहीं है, जिसे सुलझाया न जा सकता हो। औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर आज कई राज्यों में ऐसी स्थितियां हैं, जहां के किसान अपने हक के लिए आए दिन आंदोलन कर रहे है। इसी वर्ष जनवरी में छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के किसानों ने हैदराबाद की कंपनी केएसके द्वारा स्थापित किए जा रहे महानदी पावर प्लांट को कम कीमत पर जमीन देने से इंकार करते हुए करीब डेढ़ माह तक आंदोलन किया था। किसान किसी भी स्थिति में राजी होने को तैयार नहीं थे, अलबत्ता जिला प्रशासन को मध्यस्थ बनकर पावर कंपनी व किसानों के बीच समझौता कराना पड़ा। इसके ठीक दो माह बाद ही यानी मार्च में गुजरात के वड़ोदरा क्षेत्र के सौ से अधिक गांवों के किसानों ने भूमि अधिग्रहण को लेकर राज्य सरकार की वर्तमान नीति का जबरदस्त विरोध किया था। जमीन अधिग्रहण के प्रश्न पर महाराष्ट्र के जैतापुर, आंध्र प्रदेश और ओडिशा से लेकर हिमाचल प्रदेश तक लगभग पूरे देश में आज विरोध और विद्रोह के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। एक तरह से औद्योगीकीकरण से घटती कृषि भूमि को लेकर अमूमन सभी राज्यों के किसान सड़क पर उतर आए है, वे अपनी मातृभूमि को बचाने जान तक देने को तैयार है, जबकि उन राज्यों में किसानों के दम पर ही चुनी गई सरकारें उनके विरोध में नजर आ रही है। हालांकि राजनैतिक मंचों में नेता अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किसानों के पक्ष में लंबी चौड़ी बातें जरूर करते देखे व सुने जाते हैं, लेकिन जहां पूंजीपतियों व उद्योगपतियों के हित की बात आती है, वहां सरकार व नेता आंखे मूंदकर किसानों की गर्दन मरोड़ने में बिल्कुल भी परहेज नहीं कर रहे हैं। मसलन वर्तमान में हालात ऐसे बन गए है कि वैश्वीकरण के इस दौर में भारत ही नहीं, चीन के किसानों को भी अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। चौकाने वाली बात यह है कि पिछले एक दशक में भूमि मामले को लेकर चीन में 70 हजार से अधिक आंदोलन हुए हैं।

इधर उत्तरप्रदेश के ग्रेटर नोएडा के भट्टा पारसौल गांव में किसानों और पुलिस के बीच शनिवार को जो खूनी जंग शुरू हुई थी, वह अब बुलंदशहर, अलीगढ़ और आगरा यानी पूरे यमुना एक्सप्रेस-वे तक फैल चुकी है। भट्टा पारसौल में किसान व पुलिस के बीच जो कुछ भी हुआ, उसे उत्तरप्रदेश सरकार की अदूरदर्शिता का नतीजा ही कहा जा सकता है। यहां के किसान सरकार व प्रशासन से नाराज थे, लेकिन वे सरकार के समक्ष अपना पक्ष रखना भी चाहते थे। मगर कुछ कथित किसान नेताओं ने किसानों को भड़काकर आग में घी छिडकने का काम कर दिया। इस मामले में प्रशासन से भी गलती हुई। प्रशासन ने आंदोलन के शुरुआत में तत्परता दिखाई, लेकिन बाद में वह भी सुस्त पड़ गया। एक तरह से देखा जाए तो किसानों के आंदोलन के लिए सौ वर्ष पुराना ब्रिटिशकालीन भूमि अधिग्रहण कानून ही पूरी तरह से जिम्मेदार है। भूमि अधिग्रहण कानून भारत को अंग्रेजों से विरासत में मिला हुआ है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने 1894 में लागू किया था। जिसके अनुसार, सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए किसी की भी भूमि अधिग्रहित की जा सकती है। ब्रिटिश सरकार ने 19 वीं सदी में देश की भूमि बंदोबस्त व्यवस्था में जबरदस्त ढंग से फेरबदल किया, जिसका जमकर विरोध भी हुआ, लेकिन कानून में फेरबदल करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। भारत आज अंग्रेजों की गुलामी से भले ही आजाद हो गया है, लेकिन यहां के किसान व आम लोग अब भी अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए सौ साल पुराने भू अधिग्रहण कानून के चक्कर में पिस रहे हैं। इस कानून को बदलने यूपीए सरकार के प्रथम कार्यकाल में एक संशोधित विधेयक 2009 में लाया गया, लेकिन यह विधेयक किन्ही कारणों से पारित नहीं हो सका। भूमि अधिग्रहण के मामले में एक अहम बात यह भी है कि सभी राज्यों के अपने-अपने अधिग्रहण विधेयक हैं, इन विधेयकों या कानूनों में एकरूपता नहीं है। इस वजह से भी किसान व आम जनता को अपनी भूमि का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा हैं। देश में हरियाणा ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां समझौते के आधार पर किसानों की भूमि अधिग्रहित की जा रही है। ऐसे में हरियाणा का मॉडल रखते हुए अन्य राज्यों के किसान केन्द्र सरकार से वहां की भूमि अधिग्रहण नीति को देश भर में लागू किए जाने की मांग कर रहे हैं।

इधर भूमि अधिग्रहण विधेयक को कानून की शक्ल देने की राह में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार अपने कदम ज्यादा आगे नहीं बढ़ा पाई है। लिहाजा, उत्तरप्रदेश में माया सरकार को कोसने के बावजूद कांग्रेस को भी यह चिंता सता रही है कि वह किस मुंह से किसानों के पास जाए। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी द्वारा किसानों के बीच जाकर सहानुभूति जताने के कयासों के बीच कांग्रेस खेमा मान रहा है कि उनके पास कुछ ठोस होना चाहिए, जिससे किसान उन पर भरोसा करें। हालांकि देश के कई राज्यों में बढ़ते किसान आंदोलन से चिंतित केन्द्र सरकार आगामी सत्र में भूमि अधिग्रहण विधेयक को कानून की शक्ल देने की बात कह रही है। बहरहाल, औद्योगिक विकास के समर्थक यह मान बैठे हैं कि किसानों से जब चाहे, जमीन ली जा सकती है। यदि किसान आसानी से अपनी जमीन देने तैयार न हो तो उनकी जमीन नियम-कायदों के तहत् जबरिया हड़पी भी जा सकती है। यही वजह है कि जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश नही, बल्कि भारत के कई राज्य सुलग रहे हैं।