किसी सहारे के मोहताज नहीं बुजुर्ग
बुजुर्गो की अनुपस्थिति में तजुर्बे की जो कमी महसूस होती है उसे दूर करने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है। हम उनके मुकाबले कहीं ज्यादा पैसे कमा सकते हैं, ढ़ेर सारी सुविधाएं जुटा सकते हैं. दुनिया की तमाम चीजें खरीद सकते हैं मगर घर में बुजुर्गों से मिलने वाला प्यार, संस्कार और अनुभव नहीं पा सकते।
वर्तमान में पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते प्रभावों के साथ ही हम बुजुर्गों को अप
ने परिवार का हिस्सा मानने से इंकार करने लगे हैं. उनकी नसीहतें हमें बेकार लगती हैं. लेकिन हम उनमें छुपे प्यार और भावनाओं को नहीं समझ पा रहे हैं। आजकल मां-बाप की यही शिकायत होती है कि उनके बच्चे बात नहीं सुनते हैं और उन्हें कुछ भी कहने से पलट कर जवाब दे देते हैं। इसमें दोष बच्चे का नहीं, बल्कि बड़ों का भी है। क्योकि जिस सभ्यता व संस्कृति को बड़ों ने अपनाया है, उसका ही अनुशरण बच्चे कर रहे हैं।
खैर आजकल पश्चिमी सभ्यता का ही दुष्परिणाम है कि बुजुर्गों के सेवानिवृत होने के बाद उनके लिए हमारे दिलों में ही नहीं, हमारे घरों में भी उनके लिए जगह कम पड़ने लगती है। उस वक्त हम ऐसा मान लेते हैं कि वे दुनिया के लिए बेकार हो गए हैं, मगर हम यह भूल जाते हैं कि उन्हें हमारी नहीं बल्कि, हमें उनकी जरूरत है। जिन बुजुर्गों को हम अकेला छोड़ देते हैं वे हमारे सहारे के मोहताज नहीं हैं। क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी आपके लिए काम करते हुए गुजारी है तो अब वे अपने लिए भी काम कर सकते हैं. मगर उनके जाने से हमारे घरों और परिवारों में जो सूनापन आ जाता है उसे कोई नहीं भर सकता। समाजशास्त्रियों का मानना है कि युवाओं में आधुनिकता के साथ व्यक्तिगत जिंदगी गुजारने की सोच का ही नतीजा है कि उनके माता-पिताओं को जीवन के अन्तिम पड़ाव में रोटी, कपड़े व मकान के लिए तरसना पड़ रहा है। भारत में वरिष्ठ नगरिकों पर शोध कर रही स्वयं सेवी संस्था हेल्पएज इंडिया ने माना कि मौजूदा समय में 40 फीसदी वरिष्ठ नागरिक मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना झेल रहे है। भारत में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 7 करोड़ से अधिक है, जो दस वर्षो में 10 करोड़ तक पहुंच जाएगी।
आज जब हम अपने बच्चे की परवरिश कामवाली से करवाते हैं और सोचते हैं कि बच्चों में अच्छे संस्कार पनपेंगे, ऐसा कैसे होगा? कामवाली बाई के लिए बच्चे की परवरिश सिर्फ एक काम है और उसमें भावनायें जुड़ी नहीं होतीं, लेकिन घर के बुजुर्गों के लिए यह अपने परिवार और वंश की परंपराओं और संस्कारों को आगे बढ़ाने का अहम दायित्व है। वास्तव में हमें बुजुर्गो की जरूरत है, क्योंकि उनके नहीं होने से हमारे घरों से विनम्रता और संस्कार गायब होते जा रहे हैं।

खैर आजकल पश्चिमी सभ्यता का ही दुष्परिणाम है कि बुजुर्गों के सेवानिवृत होने के बाद उनके लिए हमारे दिलों में ही नहीं, हमारे घरों में भी उनके लिए जगह कम पड़ने लगती है। उस वक्त हम ऐसा मान लेते हैं कि वे दुनिया के लिए बेकार हो गए हैं, मगर हम यह भूल जाते हैं कि उन्हें हमारी नहीं बल्कि, हमें उनकी जरूरत है। जिन बुजुर्गों को हम अकेला छोड़ देते हैं वे हमारे सहारे के मोहताज नहीं हैं। क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी आपके लिए काम करते हुए गुजारी है तो अब वे अपने लिए भी काम कर सकते हैं. मगर उनके जाने से हमारे घरों और परिवारों में जो सूनापन आ जाता है उसे कोई नहीं भर सकता। समाजशास्त्रियों का मानना है कि युवाओं में आधुनिकता के साथ व्यक्तिगत जिंदगी गुजारने की सोच का ही नतीजा है कि उनके माता-पिताओं को जीवन के अन्तिम पड़ाव में रोटी, कपड़े व मकान के लिए तरसना पड़ रहा है। भारत में वरिष्ठ नगरिकों पर शोध कर रही स्वयं सेवी संस्था हेल्पएज इंडिया ने माना कि मौजूदा समय में 40 फीसदी वरिष्ठ नागरिक मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना झेल रहे है। भारत में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 7 करोड़ से अधिक है, जो दस वर्षो में 10 करोड़ तक पहुंच जाएगी।
आज जब हम अपने बच्चे की परवरिश कामवाली से करवाते हैं और सोचते हैं कि बच्चों में अच्छे संस्कार पनपेंगे, ऐसा कैसे होगा? कामवाली बाई के लिए बच्चे की परवरिश सिर्फ एक काम है और उसमें भावनायें जुड़ी नहीं होतीं, लेकिन घर के बुजुर्गों के लिए यह अपने परिवार और वंश की परंपराओं और संस्कारों को आगे बढ़ाने का अहम दायित्व है। वास्तव में हमें बुजुर्गो की जरूरत है, क्योंकि उनके नहीं होने से हमारे घरों से विनम्रता और संस्कार गायब होते जा रहे हैं।
आजकल हर दिन किसी न किसी को समर्पित हो गया है. कई लोग इसका विरोध भी करते हैं, पर इसका सकारात्मक पहलू यह है कि आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में एक पल ठहरकर हम उस भावना पर विचार करें, जिस भावना से ये दिवस आरंभ हुए हैं.