जांजगीर-चांपा जिले में भी सिंगूर जैसे ही हालात
विश्व में ढाई करोड़ लोग चढ़े मानव तस्करी की भेंट
चिंतन से ज्यादा चरित्र की जरूरत
भारत अब ज्यादा शहरीकृत है, भारत की जनता ज्यादा उम्मीदें रखने लगी है और शासन की नई व्यवस्था तलाश रही है। कांग्रेस अभी सब कुछ नहीं हारी है। उसे इस बात से सांत्वना मिल सकती है कि गुजरात में सफलता के बावजूद भाजपा की स्थिति उससे भी ज्यादा खराब है।ऐसे में यूपीए सरकार को बचे हुए कार्यकाल में ये दिखाना होगा कि पार्टी परिणाम भी दे सकती है। राहुल गांधी की बड़ी गलती यह रही कि उन्हें लगा कि सरकार में सुधार किए बिना ही वह संगठन को पुनर्जीवित कर सकते हैं। सरकार में आत्मविश्वास बहुत कम हो गया है और इसे लौटाना ही कांग्रेस की प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके लिए सबसे पहले पार्टी नेताओं को संदेश का महत्व समझाना होगा। साथ ही नेतृत्व, खासकर प्रधानमंत्री और राहुल गांधी को अपने संदेशों में और ज्यादा स्पष्ट होना पड़ेगा। ऎसा नहीं हुआ तो उनकी खामोशी से बने नैतिक व वैचारिक निर्वात को तमाम अन्य शक्तियां भर देंगी। हालाँकि, पुरातनपंथी संघ की बंधक बनी भाजपा शासन की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं सुझा पा रही, लेकिन कांग्रेस को पहचानना होगा कि लोगों में गुस्सा उबल रहा है। अलबत्ता, भारतीय जनता पार्टी से थोड़ा बेहतर होने से काम नहीं चलेगा। कांग्रेस पार्टी को अभी चिंतन से ज्यादा चरित्र की जरूरत है।
अमृत की खोज में लगी हुई है कांग्रेस
क्या निकल कर आएगा चिंतन शिविर से
आत्महत्या को मजबूर ‘‘अन्नदाता’’
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल हुई मौतों की संख्या साल 2010 में हुई 15 हजार 933 मौत की अपेक्षा कम है, लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि राज्य सरकारों ने हर वर्ष बढ़ती जा रही किसानों की आत्महत्या को स्वीकार न करने की ठान ली है। किसानों की आत्महत्या को लेकर छत्तीसगढ़ शासन के पुलिस विभाग के उच्चाधिकारियों का कहना है कि प्रदेश में अब तक एक भी किसान ने कृषि संबंधित परेशानी के कारण आत्महत्या नहीं की है, जबकि राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने ग्रामीण इलाकों में हुई आत्महत्याओं को किसानों की आत्महत्या मान लिया गया है। वहीं ओडिशा के कृषि मंत्री प्रदीप महारथी अपने राज्य में होनी वाली मौतों के पीछे किसानों की बदहाल स्थिति को जिम्मेदार न मानते हुए कहते हैं कि किसान लोन लेकर जुए खेल जाते हैं और जब चुका नहीं पाते तो आत्महत्या कर लेते हैं। पश्चिम बंगाल के गरीब, बदहाल किसानों की मौत वहाँ के कृषि सचिव को दारूबाजी की परिणिति लगती है। एनसीआरबी के आंकड़ों के सामने आने के बाद भी गुजरात सरकार ने आश्चर्यजनक ढंग से कहा है कि हमारे यहाँ एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है, जबकि ये आंकड़े राज्य सरकार ने ही एनसीआरबी को भेजी थी। मेरा मानना है कि पुलिस की ओर से थाना स्तर पर जिस तरह आत्महत्याओं के मामले निपटाए जाते है, उससे उनके वास्तविक कारणों का पता नहीं चल पाता है। क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के यह आंकड़े राज्य की पुलिस की ओर से ही भेजे जाते हैं। मगर ये कहीं नहीं बताया जाता है कि आत्महत्या करने वाले ने आर्थिक कारणों से ऐसा किया है। गंभीर बात यह है कि अधिकतर मामलों में पुलिस अन्य कारणों का उल्लेख करते हुए मामले का निपटारा कर देती है। किसानों की आत्महत्या का एक सबसे बड़ा कारण आर्थिक तंगी ही है। जबसे किसानों की आत्महत्या के मामले उजागर होने लगे हैं, तबसे पुलिस ने किसानी की वजह से आत्महत्या के खाने को एक तरह से हटा ही दिया है। उसकी जगह पर अब अज्ञात कारणों से आत्महत्या लिखना सरल और सहज समझा जाने लगा है।
आत्महत्या करने वाले किसान के परिवार को सरकार मुआवजा न देने के सौ बहाने बनाती है। अगर जमीन बाप के नाम पर है और सारा काम बेटा करता है और भूखमरी के हालत में आत्महत्या कर लेता है तो सरकार उस किसान की आत्महत्या को गणना में नहीं लेती है, क्योंकि खेती की भूमि उसके नाम न होकर उसके बूढ़े बाप के नाम है। फिर सरकार कहती है कि इस हालत में किसान के बेटे ने कर्ज से उत्पन्न समस्याओं के कारण आत्महत्या नहीं की। परिवार का बड़ा लड़का बाप के बूढ़े होने के कारण खेती का काम तो संभाल लेता है, परंतु उसको यह कभी विचार नहीं आ सकता कि बाप के होते हुए भूमि अपने नाम करवा ले। पिछले दो दशक में किसानों के हालात बुरे हुए हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ हर साल बढ़ती जा रही है। कृषि प्रधान देश में आज ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो गई हैं कि किसान अपने आप को हर तरफ से असहाय महसूस कर रहा है। किसानों के आत्मह्त्या की वजह केवल एक ही कारण से हो रही है, ये कहना थोड़ा सा अनुचित होगा, मगर इसकी सबसे शक्तिशाली वजह किसानो का कर्ज में डूबा होना ही रहा है। ये कर्ज कभी सरकार का होता है और कभी साहूकार का, और जब किसान को ऐसा लगने लगता है कि वह अब कर्ज को नहीं चुका पाएगा और उसे समाज में भारी अपमान सहना पड़ेगा तो उसे सबसे आसान रास्ता आत्महत्या ही नजर आता है। उसे उस समय यह बिल्कुल समझ नहीं आता है कि वह क्या करे और घबराहट में वह आत्महत्या की तरफ कदम बढ़ा देता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि फसल तो बहुत अच्छी होती है, लेकिन उस फसल को बेचने के बाद उसे उसका भुगतान इतने दिनों बाद मिलता है को वह कर्ज कई गुना हो चुका होता है और मासूम किसान उसे चुकाने में खुद को असमर्थ पाता है। वर्तमान स्थिति में अगर जल्द सुधार नहीं हुआ तो जो किसान आज पूरे देश के लिए अन्न पैदा कर रहा है वो अनाज सिर्फ अपने लिए ही पैदा करेगा और उसके बाद जो स्थिति होगी उसके बारे में सोचा भी नही जा सकता।
जीवन से लेकर मृत्यु तक गीत-संगीत- सपना
संगीत, जो हर हिंदुस्तानी के तन-मन में रचा-बसा है। यहां की आबो हवा में संगीत है। जीवन से लेकर मृत्यु तक गीत-संगीत हैं। हम हवा में, रोशनी में, पहाड़ों की वादियों में संगीत को महसूस करते हैं। वह संगीत अगर आपके पास हो तो आप भी खुश होने का बहाना ढूंढ लेते हैं, इसीलिए मैं संगीत को हमेशा जीने की कोशिश करती हूं। इसीलिए भी कि यही मेरा कैरियर बन चुका है और खुद हमेशा आनंदित महसूस करती हूं। मैं बहुत खुशनसीब हूं कि ईश्वर ने मेरे हिस्से संगीत दिया।
यह कहना है जाज्वल्य देव लोक महोत्सव में अपनी प्रस्तुति देने पहुंची मशहूर पार्श्व गायिका सपना अवस्थी का। बचपन से ही गीत-संगीत में विशेष रूचि रखने वाली सपना अवस्थी ने बातचीत में बताया कि वे नवाबों और नफासतों की नगरी लखनऊ में पैदा हुई। उनके पिता संस्कृत के विद्वान थे। शायद यही असर था कि मेरी पढ़ाई भी उसी रास्ते पर हुई। उन्होंने संस्कृत से एमए किया, लेकिन संगीत के प्रति बचपन से ही रूचि थी। इस वजह से उन्होंने भातखंडे संगीत महाविद्यालय से संगीत में विशारद किया। इसके साथ ही साथ छोटी उम्र से थियेटर भी किया करती थी। पिता की दिलचस्पी कला में ज्यादा थी, इसीलिए उनके कहने से थियेटर के साथ संगीत की शिक्षा को भी जारी रखा। वे बताती है कि बचपन में उनका मन बहुत बावरा था, तरह-तरह के सपने देखा करता था। संस्कृत में एमए करने के बाद वे शास्त्रीय संगीत सीखने दिल्ली आई और यहां आकर रंगमंच से जुड़ गई। अपने पति कार्तिक के साथ मिलकर उन्होंने अवधी थियेटर की नींव रखी। टीवी के पहले सोप-ऑपेरा ‘हम लोग’ में अभिनय भी किया।
गांव की माटी से सराबोर, अल्हड़ बंजारन से खनकदार आवाज उनकी अपनी तरह एक खालिस आवाज थी, जिसने नदीम श्रवण से लेकर रहमान जैसे शीर्षस्थ संगीतकारों को भी बेतरह लुभाया। सपना बताती है कि उनके सैकड़ों गीत सुपर-डूपर हिट हुए, इंडस्ट्री में उन्होंने दो दशकों का लंबा समय गुजारा है, उनके संगीत का यह सफर अब भी अनवरत जारी है। गीत-संगीत के मामले में उनका तर्क है कि हर कोई तानसेन या बैजू बावरा बन जाए या रफी और लता मंगेशकर बन जाए, यह जरूरी नहीं है। उसका अंश होना भी हमारे लिए गर्व का विषय है। जो अंश मिला है, उसी से मैं संतुष्ट हूं और उसे पूरी ईमानदारी से लोगों तक पहुंचा रही हूं। स्वर कोकिला लता मंगेशकर को अपना आदर्श मानने वाली सपना अवस्थी जी कहती है कि लता बाई ने शुरू में फिल्म में एक्टिंग भी की थी, अगर एक्टिंग में ही रह जातीं तो आज की लता मंगेशकर को हम कहां ढूंढ पाते?
उन्होंने बताया कि हम लोग संगीतकार चित्रगुप्त के बेटे मिलिंद की सगाई में उनके घर गए थे। इंडस्ट्री के नामचीन लोग उसमें शामिल हुए थे। वहीं गीतकार समीर जी ने मेरी पहचान शेखर कपूर से कराई। मेरी आवाज की समीर जी ने काफी तारीफ कर दी थी। मुझे पहला ब्रेक ‘दुश्मनी’ में मिला, लेकिन मेरी रिलीज होने वाली पहली फिल्म थी ‘इक्का राजा रानी’, जिसमें मेरा गाया गाना हिट हो गया। उसके बाद तो मेरे कैरियर में उछाल आ गया। सच कहूं तो मेरे कैरियर में समीर जी का महत्व अपनी जगह है, लेकिन संगीतकार नदीम-श्रवण ने जिस तरह मेरी आवाज का उपयोग किया, उसने मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया। सबसे ज्यादा लोकप्रियता मुझे फिल्म ‘राजा हिंदुस्तानी’ के गीत ‘परदेसी परदेसी जाना नहीं’ से मिली। इसमें मेरी आवाज को ‘सपना अवस्थी की आवाज’ की पहचान मिली। इस गाने से प्रसिध्दि मिली और अवार्डों की झड़ी लगी। बस, एक बात का अफसोस है आमिर खान की दूसरी फिल्म ‘मेला’ में भी गाने के बावजूद उनसे ढंग से कभी बातचीत नहीं हो पाई। उनकी और भी फिल्मों में गाने की चाहत है।
उन्होंने बताया कि हिन्दी, बंगाली, उड़ीया, राजस्थानी सहित विभिन्न भाषाओं के लगभग 100 फिल्मों में मैंने 200 से त्यादा गाने गाए हैं। मगर एल्बमों को जोड़ दें तो गानों की संख्या 2500 से ऊपर चली जाएगी। शुरू-शुरू में मेरे गाने आज के आइटम सांग्स जैसे थे। उस समय मेरे गानों की काफी आलोचना भी हुई, लेकिन आज वैसे ही गाने हिट हो रहे हैं और लोगों को पसंद आ रहे हैं। मुझे खुशी है कि एआर रहमान के संगीत निर्देशन में मैंने ‘छैयां-छैयां’ गाया था, जो आइटम में ऑल टाइम हिट माना जाता है। एक बात बता दूं कि विदेश में जब शो करने जाती हूं तो सबसे ज्यादा फरमाईश छैयां-छैयां की ही होती है। इस गाने को विदेशी सुनते और उस पर थिरकते हैं।
सपना अवस्थी बताती है कि मुझे जो भी कामयाबी मिली है, इसमें मेरे पति कार्तिक का बहुत बड़ा योगदान है। वही मेरे लिए बात करते हैं। कांप्टीशन गुणी लोगों के बीच होती है, मैं खुद को गुणी नहीं मानती। सच तो यह है कि मुंबई में मुझे ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। सब कुछ आसानी से और बिना मांगे मिलता रहा, इसीलिए मन को तसल्ली ज्यादा है। घर में प्रतिदिन ज्यादा नहीं सिर्फ 40 मिनट गाने का रियाज करती हूं। कभी तानपुरे पर तो कभी हारमोनियम पर। सपना कहती है कि इस सच को स्वीकार करने में मैं कोताही नहीं करती कि बड़े-बड़े उद्योगपतियों के यहां शादी आदि के मौके पर गाने जाती हूं। उनमें मुंबई, राजस्थान, दिल्ली, कोलकाता का नंबर ज्यादा आता है। वहां जाने को कुछ लोग बुरा भी मानते हैं लेकिन मुझे उससे फर्क नहीं पड़ता है।
सपना अवस्थी का कहना है कि छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत का अपना एक अलग वजूद है। छत्तीसगढ़ी गीतों को सुनने में काफी मजा आता है, दिल में रोमांच भर जाता है। सबसे अच्छी बात यह है कि छत्तीसगढ़ के दर्शक बहुत जबरदस्त है। इससे भी कही ज्यादा अच्छी छत्तीसगढ़ की अतिथि परंपरा है, जहां हर किसी को घर-परिवार जैसा सम्मान मिलता है। जब भी छत्तीसगढ़ में प्रोग्राम देने का न्योता मिलेगा, मैं जरूर आऊंगी, क्योंकि यहां के दर्शकों के प्यार आगे कोई सीमा या सरहर आड़े नहीं आ सकती। पार्श्व गायिका सपना अवस्थी ने कहा कि छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया........!!!
किशोर दा से नहीं मिल पाने का अफसोस- सानू
एक ही दिन में 28 गाने रिकार्ड करने वाले, पांच बार सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व गायक का पुरूस्कार जीतने वाले और सन् 2009 में पद्मश्री अवार्ड से नवाजे गए पार्श्व गायक कुमार सानू को किशोर दा से नहीं मिल पाने का अफसोस है। बॉलीवुड के मशहूर प्लेबैक सिंगर सानू ने जांजगीर में आयोजित जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव में अपने सुरों से धूम मचाई।
कोलकाता में जन्में कुमार सानू का मूल नाम केदारनाथ भट्टाचार्य है। उनका पारिवारिक माहौल पूरी तरह से संगीतमय रहा है। पिता पशुपतिनाथ संगीत के शिक्षक रहे, बड़ी बहन रेडियो पर गाती थी। सन् 1989 में जगजीत सिंह ने उन्हें संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी से मिलाया और उन्होंने अपना पहला गाना फिल्म जादूगर में गाने का मौका कुमार सानू को दिया।पार्श्व गायक कुमार सानू ने बातचीत में कहा कि वर्तमान दौर में के गानों में फूहड़ता है, इस बात को श्रोता भी जानते हैं।
फूहड़ गीतों के माध्यम से हम आने वाले पीढ़ी के लिए माहौल खराब कर रहे हैं। सानू ने बताया कि किशोर दा ही उनके आदर्श हैं, लेकिन उन्हें न तो किशोर दा के साथ गाने का मौका मिला और न ही मुलाकात कर सके। महेश भट्ट की फिल्म आशिकी से रातोंरात सिने जगत पर छा जाने वाले कुमार सानू ने आगे बताया कि वे अपने 22 वर्ष के फिल्मी कैरियर में 17 हजार से अधिक गाने हिंदी और बांग्ला में गा चुके हैं। साजन, 1942 ए लव स्टोरी, सडक़, फूल और कांटे, आंखें, जुर्म सहित लगभग 350 फिल्मों में कुमार सानू ने गीत गाए हैं। फिलहाल उनके तीन एलबम ट्रेक पर हैं, जिनमें से एक संभवत: वेलेंटाईन डे पर रिलीज होगा। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में यह उनका तीसरा प्रोग्राम रहा है, इससे पहले वे बिलासपुर व रायपुर में अपनी प्रस्तुति दे चुके है।
छत्तीसगढ़ के लोगों को गीत-संगीत से बहुत ज्यादा लगाव है तथा यहां के दर्शक बहुत अच्छे हैं, जो कलाकारों का बहुत सम्मान करते हैं। सानू ने कहा कि फिल्म नगरी मुंबई में हर रोज सैकड़ों नए गीतकार-संगीतकार आते हैं, मगर वही कामयाब होते है, जिन्हें श्रोता व दर्शकों का स्नेह मिलता है। सानू ने बताया कि छत्तीसगढी़ फिल्म व गीत संगीत भी सुनने में अच्छे लगते हैं, बशर्ते फुहड़ता न रहे।
अन्ना, आन्दोलन और यूपीए सरकार
एक मजबूत लोकपाल की कवायद भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए है, लेकिन सरकार के अब तक के तौर-तरीकों से लगता नहीं कि वह देश को कोई सशक्त लोकपाल दे पाएगी। पिछले साल के मुकाबले भ्रष्टतम् देशों की सूची में इस वर्ष भारत सात पायदान और ऊपर चढ़ गया है। इसकी पुष्टि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट से हो रही है, जो इस बात का सुबूत है कि भ्रष्टाचार से लड़ने की हमारी नीयत में कहीं न कहीं खोट है। गांधीवादी नेता अन्ना के आंदोलन के शंखनाद से यूपीए सरकार एक बार फिर सहम गई है।
देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए सिर्फ यूपीए सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि तमाम् राजनीतिक दलों का नजरिया भी भ्रष्टाचार के मुद्दे और लोकपाल के गठन को लेकर कभी स्पष्ट नहीं रहा है। यदि ऐसा नहीं होता, तो संसदीय समिति द्वारा लोकपाल का मसौदा तैयार करते समय उसमें भ्रष्टाचार से निपटने के मजबूत उपायों की झलक जरूर मिलती। अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली समिति ने निचले स्तर की नौकरशाही और सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के मामले में चौबीस घंटे के भीतर जिस तरह से पलटी खाई है, उससे स्पष्ट है कि लोकपाल के प्रावधानों और अधिकारों को लेकर संसद में कितने गहरे मतभेद हैं और समिति पर किस तरह का दबाव है। स्थायी समिति की रिपोर्ट को यदि मंजूर कर लिया जाए, तो एक ऐसे लोकपाल का खाका सामने आता है, जिसके दायरे में प्रधानमंत्री, संसद के भीतर सांसदों का व्यवहार, न्यायपालिका, निचले स्तर की नौकरशाही और सीबीआई आदि नहीं होंगे, बल्कि इसके दायरे में कॉरपोरेट, मीडिया और एनजीओ आएंगे। ऐसे में बीते एक साल से जन लोकपाल के लिए आंदोलन कर रहे अन्ना हजारे और उनके साथी अगर सरकार की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं, तो इसमें गलत क्या है? स्थायी समिति की रिपोर्ट में अन्ना हजारे को संसद की ओर से दिए गए कई आश्वासनों को पूरा नहीं किया गया है। दूसरी ओर, पिछले दस दिनों से लोकसभा में कामकाज बुरी तरह से ठप है। खासकर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी व यूपीए सरकार के कई दिग्गज मंत्रियों का वैसे भी पहले से ही बुरा हाल है। ऐसे में नहीं लगता कि इस शीतकालीन सत्र में लोकपाल के स्थायी समिति की रिपोर्ट पेश भी हो पाएगी। सरकार की ओर से अब तक जो कवायद हुई है, उससे स्पष्ट भी हो रहा है कि सरकार मामले को सुलझाने के बजाय और उलझाना चाहती है। लोकपाल को लेकर सरकार के ढुलमुल रवैये से स्पष्ट है कि वह वही कर रही है, जैसा पहले से सोचा है। गंभीरता से अगर विचार किया जाए तो भ्रष्टाचार की यह गंदगी ऊपर से नीचे की ओर बह रही है, लिहाजा निचले दर्जे के 57 लाख कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में रखना व्यावहारिक नहीं लगता। इस भ्रष्टाचार रूपी गंदगी को रोकने का उपाय सरकारी लोकपाल में नजर नहीं आ रहा है।
यहां बताना लाजिमी होगा कि पहली बार जब अन्ना का अनशन शुरू हुआ, तो सरकार को विश्वास नहीं था कि अन्ना के समर्थन में देश भर के लोग आगे आएंगे, लेकिन जब अन्ना के पक्ष में देश भर के लोग खड़े हुए तब तो सरकार पूरी तरह से हिल गई और यह जोड़तोड़ शुरू हुई कि उनके आंदोलन को आखिर कैसे खत्म कराया जाए? कई दिनों के बाद आखिरकार खुद प्रधानमंत्री डॉ सिंह ने अन्ना हजारे को पत्र लिखकर वादा किया कि जल्द ही देश में मजबूत लोकपाल बिल लाया जाएगा। यही नहीं, संसद में भी उनकी तीन मुख्य मांगों पर सहमति बनी थी, लेकिन अभिषेक मनु सिंघवी ने प्रधानमंत्री के वायदे एवं संसद की भावना की अवमानना करके बिल्कुल कमजोर एवं लचर विधेयक का मसौदा तैयार किया और ऐसा करना मामूली बात नहीं है। अन्ना हजारे इसी बात से ज्यादा आक्रोशित है कि मनु सिंघवी ने प्रधानमंत्री के बात की अनदेखी आखिर क्यों की। हजारे का कहना है कि इससे पूर्व संसद की स्थायी समिति के अधिकांश सदस्यों ने विधेयक का मसौदा स्वीकार कर लिया था, लेकिन फिर इसमें कुछ बदलाव किए गए। चूंकि राहुल गांधी इस मुद्दे पर बोल चुके हैं और वही स्थायी समिति के सदस्यों पर दबाव डाल रहे हैं। अलबत्ता राहुल नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार मुक्त देश हो, क्योकि ऐसा होने पर उनकी शक्तियां घट जाएंगी। अन्ना ने राहुल गांधी से पूछा भी है कि आप हमारी सेवा करने के लिए सत्ता में हैं या अपने रुख को मजबूत करने के लिए? यहां तक कि स्कूली बच्चे भी समझ सकते हैं कि सरकार देश की जनता के साथ खिलवाड़ कर रही है। विधेयक के सामाजिक संगठन के मसौदे पर बहस न कराने पर अन्ना ने सरकार की आलोचना भी की है तथा सी और डी श्रेणी के कर्मचारियों को केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के तहत लाए जाने के प्रस्ताव पर भी सवाल उठाएं हैं। उन्होंने सरकार को चेतावनी दी कि अगर संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन 22 दिसंबर तक मजबूत एवं कारगर लोकपाल विधेयक नहीं आया, तो 27 दिसंबर से रामलीला मैदान पर उनका अनिश्चितकालीन अनशन शुरू होगा। इसके बाद वह पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में लोगों से भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वाले राजनीतिक दलों एवं नेताओं को हराने की अपील करेंगे।
यही नहीं, वह दो साल बाद होने वाले आम चुनाव के पहले भी देशभर का दौरा करेंगे। लोकपाल विधेयक पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के खिलाफ गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के आक्रामक शंखनाद से केन्द्र सरकार एक बार फिर से हिलती नजर आ रही है। अन्ना को मनाने के लिए सरकार ने कई दांव पेंच शुरू कर दिए हैं। प्रधानमंत्री डॉ सिंह व उनकी पूरी टीम को अब इस बात की ज्यादा चिंता सताने लगी है कि अन्ना के आगामी आंदोलन से केन्द्र में यूपीए सरकार का समूचा सूपड़ा साफ हो जाएगा। इधर इसी बात को लेकर कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी भी सोंच में पड़ गई हैं और अब यह चिंतन किया जा रहा है कि आखिर यूपीए सरकार अपने अस्तित्व को आगे कैसे कायम रख पाएगी। बहरहाल, संसदीय समिति के विधेयक में मीडिया और एनजीओ को भी लोकपाल के दायरे में रखा गया है, जबकि अन्ना व उनके समर्थक प्रधानमंत्री, सांसदों, न्यायधीशों और राजनीतिक दलों को इसके दायरे में रखने की मांग कर रहे हैं। एक तरह से उनका कहना वाजिब भी है क्योंकि तृतीय और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को सीवीसी के दायरे में लाया जा रहा है, जो खुद सरकार के अधीन काम करते है। ऐसा करने से किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी?
टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में जॉब्स ने लाई नई क्रांति
स्टीव पॉल जॉब्स का जन्म 24 फरवरी 1955 को सैन फ्रांसिस्को में हुआ था। उनके माता-पिता विश्वविद्यालय के अविवाहित छात्र-छात्रा थे। माँ जोआन शिबल थीं तथा पिता अब्दुलफतह जंदाली सीरियाई मूल के थे। एक स्थानीय हाईस्कूल में जॉब्स को गर्मियों के दिनों में लेट पैकार्ड के संयंत्र में पालो आल्टो में काम करने का मौका मिला। उन्होंने वहाँ एक साथी छात्र स्टीव वोजनियाक के साथ मिलकर काम किया, फिर एक ही साल बाद उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और वीडियो गेम बनाने वाली कंपनी ‘अटारी’ के साथ काम करने लगे।
उन्होंने अपने दोस्त स्टीव वोजनियाक के साथ मिलकर एक स्थानीय कम्प्यूटर क्लब में जाना शुरू किया। इसके कुछ दिनों बाद ही जॉब्स ने उपनगरीय कैलिफोर्निया के एक गैराज में अपने हाईस्कूल के दोस्त स्टीफेंसन वोजनियाक के साथ अपनी खुद की कंपनी शुरू की। उन्होंने अपनी कंपनी का नाम अपने पसंदीदा फल ‘एप्पल’ पर रखा। वर्ष 1974-75 में सबसे पहले जॉब्स ने एप्पल-1 नाम से एक मशीन लाँच की। ये पहली ऐसी मशीन थी, जिसे तैयार करने के लिए उन्होंने किसी से धन उधार नहीं लिया और न उस बिजनेस का हिस्सा किसी को दिया।
इसके बाद वे एप्पल-टू बनाने में जुट गए, जो 1977 के कैलिफोर्निया के कंप्यूटर मेले में दिखाया गया। नई मशीनें महँगी थीं। इसलिए जॉब्स ने एक स्थानीय निवेशक माइक मारकुला को ढाई लाख डॉलर कर्ज देने के लिए मनाया, उसी राशि से वोजनियाक को साथ लेकर उन्होंने एप्पल कंप्यूटर्स नाम की कंपनी बनाई। इसके ठीक 7 साल बाद जॉब्स ने 1984 में मैकिंटॉश बनाया, मगर उसके प्रचार के पीछे एप्पल में वित्तीय मुश्किलें चल रही थीं। मैकिंटॉश की बिक्री कम हो रही थी और कई लोग जॉब्स के तानाशाही रवैये से परेशान थे। इसके चलते कंपनी में एक सत्ता संघर्ष हुआ और जॉब्स को कंपनी से निकाल दिया गया। तब तक उन्होंने और चीजें सोच ली थीं। 1985 में उन्होंने ‘नेक्स्ट कंप्यूटर’ नाम से कंपनी बनाई। इस कंपनी ने एक साल बाद ग्राफिक ग्रुप को खरीद लिया।
जॉब्स स्टीव की सोच हमेशा ऐसी थी कि वे भीड़ से अलग नजर आए और इसीलिए वे हमेशा ज्यादा से ज्यादा मेहनत करते थे। उनके परिवार में पत्नी, लॉरेन और तीन बच्चे हैं। वर्ष 1991 में विवाह से पहले के प्रेम संबंध से उनकी एक बेटी भी है। वर्ष 2004 में उनके अग्नाशय के कैंसर का इलाज हुआ, तब जॉब्स ने कंपनी से स्वास्थ्य कारणों से छुट्टी ले ली और उसके बाद अगस्त में एप्पल के सीईओ पद से भी उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। वर्ष 2009 में उनका यकृत बदला गया था। जॉब्स दुनिया के अग्रणी व्यवसायियों में से एक थे। उन्होंने आईपॉड तथा आईफोन जैसे उपकरण दुनिया को दिए। आईफोन के नए मॉडल 4 एस के लाँच के एक दिन बाद ही उनका निधन हो गया। पाओ आल्टो, कैलिफोर्निया में कैंसर के बिगड़ने से उन्होंने अंतिम साँस ली। अंतिम समय में उनकी पत्नी और निकट परिजन मौजूद थे।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उनकी मृत्यु पर दुख प्रकट करते हुए कहा कि जॉब्स की निधन से दुनिया का एक दूरदृष्टा चला गया। दुनिया के ज्यादातर लोगों को उनके निधन की सूचना उसी उपकरण के जरिए मिली, जिसका उन्होंने आविष्कार किया था। इससे बड़ी श्रद्धांजलि उन्हें और क्या हो सकती है। प्रौद्योगिकी क्षेत्र की एक अन्य जानीमानी हस्ती बिल गेट्स ने जॉब्स के निधन पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा है कि जॉब्स का गहरा प्रभाव आने वाली कई पीढ़ियों तक महसूस किया जाएगा। बहरहाल, कंपनी के मुताबिक स्टीव अपने पीछे एक ऐसी कंपनी छोड़ गए है, जिसे सिर्फ वही बना सकते थे। लिहाजा उनकी आत्मा हमेशा ही एप्पल की बुनियाद रहेगी।